कानपुर-तीन दशक से अधिक समय तक पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी योग्यता और कर्मठता के बल पर पत्रकारों में अलग पहचान बनाने वाले फक्कड़ पत्रकार सुरेश त्रिवेदी 13 जुलाई-2021 की रात दुनिया छोड़ गये थे। दिल में यह हसरत लिये कि अभी बहुत कुछ लिखना-पढ़ना है। पत्रकारिता के क्रांतिवीर सुरेश त्रिवेदी का हम सब को यूं छोडकर चले जाना बहुत खल गया।

हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधा अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी के शहर कानपुर में 30 वर्षो से अधिक (मेरी अल्प जानकारी के मुताबिक) वक्त से फक्कड़ और घुमन्तू पत्रकारिता के झण्डाबरदार सुरेश दादा, चलते फिरते खुद में एक संस्था थे। उन्हें किसी एक संस्थान में बांधना ठीक न होगा। स्वतंत्र भारत से शुरू हुआ खांटी पत्रकारिता का यह सफर दैनिक जागरण से होते हुए राष्ट्रीय सहारा तक जारी रहा। कुछ समय के लिए एक अखबार का स्वयं सम्पादन भी किया धारदार लेखन से अनेक पड़ाव भी इस सफर के साक्षी बने। संघर्ष भी उन्हें डिगा नहीं पाया। कनपुरियापन और ठेठ मारक पत्रकारिता दोनों उनके अमोघ अस्त्र रहे। अड्डेबाजी, जर्नलिस्ट क्लब की बैठकी तो मौत ही रोक पायी। गली नुक्कड़ चौपाल में चाय लड़ाई।

सुरेश जी का यह अन्दाज युवा पत्रकारों के लिए अंदाज- ए- बयां बना, ये सुरेश त्रिवेदी में ही दम थी जिन्होंने युवा पत्रकारों को एकजुट कर अशोक नगर स्थित ऐतिहासिक हिन्दी पत्रकार भवन को जीवित कर कानपुर जर्नलिस्ट क्लब की स्थापना की और आज पत्रकारों का सबसे लोकप्रिय संस्था कानपुर जर्नलिस्ट क्लब है जो पत्रकार हितों के लिए सदैव मुखर रहता है।

शनिवार को सुरेश त्रिवेदी की चौथी पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर जर्नलिस्ट क्लब में आयोजित श्रद्धांजलि सभा मे उनके कई साथियों ने इसकी तस्दीक भी की और कई ऐसे संस्मरण भी सुनाए जो उनके फफ्कड़पन, दिलेरी और बिना लागडाट के सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता के लिए उनके समर्पण की पुष्टि भी करते हैं। यूं भी कह सकते हैं कि सुरेश दादा एक पत्रकार थे और पत्रकारिता ही ओढ़ते और बिछाते थे।

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