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Home कानपुर

जयंती विशेषः “दादा नरेश चन्द्र चतुर्वेदी” राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्र के शिखर पुरुष।

ABHAY TRIPATHI by ABHAY TRIPATHI
30/04/2022
in कानपुर, देश, स्पेशल
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जयंती विशेषः “दादा नरेश चन्द्र चतुर्वेदी” राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्र के शिखर पुरुष।
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दादा नरेश चन्द्र चतुर्वेदी कानपुर के साहित्यिक और राजनैतिक क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम हैं। उनके जीवन की कहानी अभावों से जूझते हुए पुरुषार्थ के बल पर विपरीत परिस्थितियों को चीरते हुए सफलताओं के कीर्तिमान स्थापित करने की एक रोचक गाथा है जो किसी के लिए भी प्रेरणा का काम कर सकती है। आज उनका 94वां जन्म दिन है, उन्हें स्मरण करने का दिन।
30 अप्रैल 1928 को स्वर्गीय दामोदर दास जी के दूसरे पुत्र के रूप में जन्मे नरेश जी का बचपन अभावों में बीता, पढ़ाई और साहित्य में रुचि के चलते प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर वे साहित्यकार और सांसद सेठ गोविंददास जी के पास जबलपुर चले गए, जहां उन्होंने न केवल हिंदी में एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की बल्कि सेठ जी के सानिध्य में अपने व्यक्तित्व को भी निखारा। जबलपुर से लौट कर उन्होंने अपने छोटे से व्यापार की शुरुआत की और देखते ही देखते अपने सम्मोहक व्यक्तित्व से उसे ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।

साहित्य के साथ साथ कांग्रेस पार्टी उनके दिल और दिमाग में बसी थी, उन्होंने एक साधारण कार्यकर्ता के रूप में अपना राजनैतिक सफर शुरू किया, वार्ड स्तर से शहर स्तर तक के पदाधिकारी बने। उस जमाने के नामी कांग्रेस के नेताओं से निकटता हासिल की। कानपुर की कांग्रेस कई गुटों जैसे राम रतन गुप्ता गुट, रतन लाल शर्मा गुट, शिव नारायण टंडन ग्रुप आदि। नरेश जी शिव नारायण टंडन जो कि थोड़े समय के लिए कानपुर के सांसद रहे थे, ,उनके ग्रुप के सबसे सशक्त प्रवक्ता थे। 1977 में नरेश जी ने लोकसभा का चुनाव लड़ा यह वह चुनाव था जनता पार्टी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की आंधी चल रही थी कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी ८५ सीटें हार गयी थी, यहाँ तक कि इंदिरा जी और संजय गांधी भी हारे, ,नरेश जी ने अपनी लोकप्रियता के बूते लगभग 95000 मत प्राप्त किए। निराशा और हताशा जैसे शब्द तो नरेश जी के शब्द कोष में थे ही नहीं, लिहाजा चुनाव में हार ने उनमें एक नए जोश का संचार किया। वे शहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने, उन्होंने घूम घूम कर जमीन से जुड़े स्वच्छ छवि के लोगों को शहर का पदाधिकारी बनाया।जब कानपुर के कांग्रेसियों के मंदिर ऐतिहासिक तिलक हाल को राजनैतिक कारणों से तत्कालीन सरकार ने कब्जे में ले लिया तब नरेश जी ने मनीराम बगिया में कांग्रेस का अस्थाई कार्यालय खोल वहीं से संचालन किया।
जब कांग्रेस के तिरंगे झंडे पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रयास हुए तब हर रविवार किसी न किसी वार्ड में झंडा रोहण कर नरेश जी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को झंडे और कांग्रेस के इतिहास से इस तरह परिचित करवाया कि उनमें एक नए उत्साह और जोश का संचार हुआ

1978 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस का अधिवेशन ऐतिहासिक नानाराव पार्क में आयोजित हुआ जिसमें इंदिरा जी ने भी भाग लिया। इस अधिवेशन की विशेषता यह थी कि इसमें आने वाले खर्च को कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं ने कूपन खरीद कर पूरा किया था, बिना किसी प्रशासनिक मदद के अनेक कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस सेवादल के सिपाही के रूप में व्यवस्था को सम्हाला। कार्यकर्ताओं का जोश देखते ही बनता था, इसी अधिवेशन से एक नारा उछला- “आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा वापस लाएंगे”। 1977 की हार से निराश इंदिरा जी ने इस अधिवेशन से एक नई ऊर्जा और ताकत पाई। कालांतर में नरेश जी प्रदेश कांग्रेस के कोषाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष बने।

1984 में 56% मत पाकर नरेश जी लोकसभा में पहुंचे, संस्कृतनिष्ठ उनकी शुद्ध हिंदी और भाषण शैली से प्रभावित होकर अटल जी खुद चल कर उनके पास आए, उन्हें गले लगा कर बोले, इतनी अच्छी हिंदी बोलने वाले एक और साथी को पाकर अभिभूत हूं, नरेश जी ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर अपनी ही सरकार के बजट की आलोचना की। कमीशनखोरी जो व्यवस्था में शामिल हो चुकी थी, उससे प्राप्त रकम पार्टी कोष में जमा कर प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ध्यान इस तरह के भ्रष्टाचार की ओर आकर्षित किया। राजीव गांधी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नरेश जी को राष्ट्रीय महासचिव बना कर राजस्थान सहित अनेक प्रदेशों की जिम्मेदारी सौंपी।
साहित्य और धर्म में तो नरेश जी का कोई सानी ही नहीं था। पुस्तकें उनकी स्थाई साथी थीं। उनके ज्ञान का भंडार इतना विस्तृत था कि कैकई को उन्होंने बहुत ऊंचे स्थान पर प्रतिस्थापित कर दिया था। गीता मेले में विद्वानों के समक्ष बोलते हुए उन्होंने महाभारत के दृष्टांत संस्कृत में सुनाते हुए दुर्योधन का पहले भगवान कृष्ण के समक्ष ला खड़ा किया और फिर उपसंहार करते हुए अंतर स्पष्ट किया कि दुर्योधन की कथनी और करनी भिन्न थी जबकि भगवान की कथनी और करनी में एकरूपता। एक से बढ़ कर एक विद्वान उनके ज्ञान पर हतप्रभ रह जाते थे।

उनकी लेखनी से निकली और प्रकाशित पुस्तकों में से कुछ इस प्रकार हैं:
(1) कन्ट्रोल और भ्रष्टाचार
(2) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (जीवनी)
(3) हिन्दी साहित्य का विकास और कानपुर
(4) साहित्य चिंतन (निबन्ध संग्रह)
(5) नारायण प्रसाद अरोरा (जीवनी)
(6) स्नेही जीवन और काव्य
(7) चलना होगा, छैल बिहारी कंटक जी की रचनाओं का संग्रह
(8) प्रताप नारायण मिश्र ग्रंथावली
(9) कानपुर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और क्रांतिकारियों की गौरव गाथा का संयोजन “चांद फांसी”

नरेश जी के बारे में कहा जाता था कि वे साहित्यकारों में राजनैतिक हैं और राजनैतिकों में साहित्यकार लेकिन मेरी नजर में नरेश जी राजनीति के लिए बने ही नहीं थे, उनकी भावुकता और स्पष्टवादिता के गुण उनकी राजनीति में रुकावट पैदा करते रहे।

नरेश जी नि:स्वार्थ समाजसेवी थे । उन्होंने कई सामाजिक और साहित्यिक संघठनों में विभिन्न पदों को सुशोभित किया। वे अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के सदस्य रहे, खादी ग्रमोद्योग से लम्बे समय तक जुड़े रहे, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान व हिंदी साहित्य सम्मेलन उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे, अशोक नगर स्थित हिंदी पत्रकार भवन के संस्थापक उपाध्यक्ष भी रहे, यही नही उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी सेवक संघ के महामन्त्री पद को सुशोभित किया। उन्होंने कानपुर के दक्षिण के इलाक़े किदवई नगर के बसने के साथ ही किदवई विद्यालय की स्थापना की जो आज इंटर कालेज है।आज उनके जन्म दिन के मौक़े पर श्रद्धा के साथ उन्हें याद करते हुए अपनी भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। अभय त्रिपाठी महामंत्री कानपुर जर्नलिस्ट क्लब।


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