वर्ष 2022 के शुरुआती महीनों में यूपी का चुनाव देश भर में चर्चा का विषय रहा। इस वर्ष भाजपा ने इतिहास रचा तो सपा-रालोद को नई उम्मीद बंधी। हालांकि, कांग्रेस के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां नजर आईं
वर्ष 2022 ने राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दिखाया। काफी कुछ समझाया। नेताओं ने दल बदला, दिल बदलने का दावा करते नजर आए। समय चक्र ने किसी को अर्श से फर्श पर ला पटका तो किसी को आसमान पर बैठा दिया। साढ़े तीन दशक बाद योगी ऐसे नेता बनकर उभरे जिन्होंने भाजपा के रूप में किसी पार्टी की लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी कराई। सपा की उम्मीदों को भी पंख लगाए। मुलायम सिंह यादव के रूप में गैर कांग्रेसवाद तथा गैर भाजपावाद के एक बड़े चेहरे को छीन लिया। आजम खां की सियासत पर विराम लगाता दिखा तो बाहुबलियों का भी राजनीतिक कद खत्म होने की ओर है।
योगी का कद तो बढ़ा पर चुनौतियां कायम
आजादी के बाद योगी आदित्यनाथ के रूप में प्रदेश का कोई मुख्यमंत्री पहली बार पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद पुन: सत्ता में लौटा। पांच साल के पहले कार्यकाल के दौरान लगभग दो वर्ष कोविड के कारण जनजीवन ठप रहा। इस दौरान योगी सरकार के लिए लोगों के जीवन की रक्षा के साथ रोजी-रोटी की चुनौती भी आ खड़ी हुई थी। दूसरी तरफ विपक्ष का जबरदस्त हमला। इसके बावजूद लोकसभा के उपचुनाव में सपा मुखिया अखिलेश यादव के त्यागपत्र से रिक्त आजमगढ़ तथा आजम खां के इस्तीफे से रिक्त लोकसभा की रामपुर में भी केसरिया फहराकर बढ़ती ताकत का अहसास करा दिया।
भाजपा की चुनौतियां…
यह वर्ष भाजपा को आगे की कुछ चुनौतियों का अहसास कराकर भी विदा हो रहा है। प्रचंड सफलता के बाद जनता और अपनों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के साथ निकाय चुनावों में इसे कायम रखने की भी चुनौती होगी। मैनपुरी तथा खतौली उपचुनाव में विपक्ष की जीत ने यह संकेत दे दिया है कि भाजपा के लिए 2024 का मुकाबला पहले जैसा आसान नहीं रहने वाला।
सपा-रालोद : कुछ खुशी-कुछ गम
सपा-रालोद गठबंधन के लिए यह वर्ष कुछ खुशी-कुछ गम देने जैसा रहा। 2022 ने कई जगह चेताया भी। चुनावी गणित के बंदोबस्त के लिए सपा ने रालोद, ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, केशव देव मौर्य के महान दल तथा अपना दल के कृष्णा देवी वाले गुट के साथ गठबंधन किया। भाजपा के साथ पांच साल सत्ता सुख भोगने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्मवीर सैनी जैसे चेहरों ने भी सपा के साथ खड़े होकर उसकी उम्मीदों को खूब हवा दी। पर, सपा गठबंधन बड़ा उलटफेर नहीं कर पाया। 2017 के मुकाबले दोगुने से अधिक सीटें 111 तथा गठबंधन सहित 125 सीटें जीतकर यह जरूर साबित कर दिया कि उसमें अभी दम है।
…लेकिन अंतर्विरोध भारी पड़े
सपा को अंतर्विरोध भारी पड़े। शुरुआत सपा विधायक दल की बैठक में शिवपाल को न बुलाए जाने से हुई। शिवपाल ने फिर प्रसपा को पुनर्जीवित करने का एलान कर दिया। उधर, आजम की मदद न करने का अखिलेश पर आरोप लगाकर मुस्लिम नेताओं ने सपा की मुस्लिम हितैषी नीति पर सवाल उठाए। ओमप्रकाश राजभर जैसे साथी भी अखिलेश का साथ छोड़ते नजर आए। पर, अंत भला तो सब भला। गुजरते साल में चाचा-भतीजे के मिलन से सपा की उम्मीदें फिर जगी हैं। सपा में सबसे बड़ा सवाल आजम की सियासत को लेकर है।
कांग्रेस : चुनौतियां और सिर्फ चुनौतियां
प्रदेश में कई दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस के लिए यह साल सिर्फ भविष्य की चुनौतियां बढ़ाने के लिए याद किया जाएगा। तमाम प्रयोगों के बावजूद हर साल जमीन खोती कांग्रेस इस साल भी झटका खाती दिखी। प्रियंका गांधी के प्रदेश में कांग्रेस की जमीन तैयार करने का प्रयोग भी बेअसर दिखा। साल-दर साल विधानसभा में सिमटती कांग्रेस इस साल हुए विधानसभा चुनाव में और नीचे लुढ़ककर सिर्फ दो विधायकों पर पहुंच गई। केंद्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को लेकर लंबे समय तक ऊहापोह में फंसा रहा तो प्रदेश में भी कांग्रेस उसी राह पर हिचकोले खाती नजर आई।
बसपा : अस्तित्व की जद्दोजहद
लोकसभा चुनाव 2019 में सपा के साथ गठबंधन कर दस सांसदों को जिताने के बाद बसपा प्रदेश में भविष्य में फिर बड़ी सियासी ताकत बनने की संभावनाओं को बलवती करते हुए दिखी थी। पर, विधानसभा चुनाव के नतीजों ने बसपा की संभावनाओं पर फिर सवालिया निशान लगा दिया। विधानसभा में बसपा सिर्फ एक सीट पर सिमट गई। भविष्य में उसे पांव जमाने में खासी जद्दोजहद करनी होगी।
आप : चर्चा में ज्यादा, जमीन पर कम
2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल ने चुनाव लड़कर अपने दल आम आदमी पार्टी की यूपी में सियासी खेती की तैयारी का संकेत दे दिया था। पर, अभी तक उसे सफलता नहीं मिली है। आप के संजय सिंह ने कोविड के दौरान सरकार पर लगातार हमला बोलकर दिल्ली मॉडल के सहारे यूपी में पैर जमाने की कोशिश की। विधानसभा चुनाव में आप ने 403 सीटों में से 349 पर उम्मीदवार उतारकर भी लोगों के बीच अपनी उपस्थिति का संदेश देने का प्रयास किया। पर, पार्टी खास प्रदर्शन नहीं कर सकी।
छोटे दल : सौदेबाजी में सफल
संजय निषाद की निषाद पार्टी, अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाले अपना दल, ओमप्रकाश राजभर के नेतृत्व वाले सुभासपा जैसे छोटे दलों के लिए यह वर्ष खास रहा। भाजपा और सपा जैसी बड़ी पार्टियों के साथ गठबंधन करके इन दलों ने विधानसभा में सीटें ही नहीं बढ़ाईं बल्कि वोटों का प्रतिशत भी बढ़ाने में कामयाब रहे। भाजपा से गठबंधन तोड़कर सपा के साथ गए ओमप्रकाश राजभर ने इस बार पिछली बार से दो सीटें ज्यादा जीतकर कुल छह विधायक निर्वाचित कराए। संजय निषाद ने भाजपा से गठबंधन किया। पार्टी के छह विधायक निर्वाचित हो गए। वह खुद विधान परिषद में पहुंचने के साथ कैबिनेट मंत्री बनने में सफल रहे। अपना दल (सोनेलाल) का भी भाजपा के साथ गठबंधन सफल रहा। 2017 में पार्टी के 9 विधायक चुने गए थे। इस बार 12 निर्वाचित हुए। अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्रिमंडल में हैं। उनके पति आशीष सिंह को भी प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह मिल गई।
विपक्ष को संदेश: विपक्ष के लिए 2022 का संदेश यह है कि राजनीति में हिंदुत्व की ताकत के प्राण तत्व अयोध्या, मथुरा और काशी की जमीन से जुड़े लोग अब अपने सरोकारों के साथ राजनीतिक ताकत का अहसास कराना सीख गए हैं। भाजपा उनकी अपेक्षा पर खरी उतरी है। इसलिए कभी इस तो कभी उस पार्टी तथा व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने के प्रयोग के बजाय उन्होंने भाजपा के रूप में स्थिर सरकार का संकल्प ले लिया है । किसी दल की स्वीकार्यता तभी होगी जब वे हिंदुत्व के सरोकारों को हृदय से सम्मान देंगे। तुष्टिकरण के बजाय दूसरों की आस्था का सम्मान लेकिन अपनी आस्था पर भी पूरा काम करने के संकल्प पर काम से ही वे जनविश्वास हासिल कर पाएंगे।
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